परिचय
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Dhamma Kalyana Meditation Hall
विपश्यना साधना
विपश्यना की ध्यान-विधि एक ऐसा सरल एव कारगर उपाय है जिससे मन को वास्तविक शांति प्राप्त होती है और एक सुखी, उपयोगी जीवन बिताना सम्भव हो जाता है | विपश्यना का अभिप्राय है की जो वस्तु सचमुच जैसी हो, उसे उसी प्रकार जान लेना | आत्म-निरीक्षण द्वारा मन को निर्मल करते-करते ऐसा होने ही लगता है | हम अपने अनुभव से जानते है कि हमारा मानस कभी विचलित हो जाता है, कभी हताश, कभी असन्तुलित | इस कारणवश जब हम व्यथित हो उठते है तब अपनी व्यथा अपने तक सीमित नही रखते, दूसरो को बांटने लगते हैं | निश्चय ही इसे सार्थक जीवन नही कह सकते | हम सब चाहते है कि हम स्वयं भी सुख-शांति का जीवन जिए और दूसरो को भी ऐसा जीवन जीने दे, पर ऐसा कर नही पाते | अतः प्रश्न यही रह जाता है कि हम कैसे संतुलित जीवन बिताएं ?
विपश्यना हमें इस योग्य बनाती है कि हम अपने भीतर शांति और सामनजस्य का अनुभव कर सकें | यह चित्त को निर्मल बनाती है | यह चित्त की व्याकुलता और इसके कारणों को दूर करती जाती है | यदि कोई इसका अभ्यास करता रहे तो कदम-कदम आगे बढ़ता हुआ अपने मानस को विकारों से पूरी तरह मुक्त करके नितान्त विमुक्त अवस्था का साक्षात्कार कर सकता है |
ऐतिहासिक प्रष्ठभूमि
विपश्यना भारत की एक अत्यन्त पुरातन ध्यान-विधि है | इसे आज से लगभग 2,500 वर्ष पूर्व भगवान गौतम बुद्ध ने पुनः खोज निकाला था | उन्होने अपने शासन के पैंतालीस वर्षों मे जो अभ्यास स्वयं किया और लोगों को करवाया- यह उनका सार है | बुद्ध के समय मे बड़ी संख्या मे उत्तरी भारत के लोग विपश्यना के अभ्यास से अपने-अपने दुःखो से मुक्त हुए और जीवन के सभी क्षेत्रों मे उँची उपलब्धियां कर पाए | समय के साथ-साथ यह ध्यान विधि भारत के पड़ौसी देशों-बर्मा, श्रीलंका, थाईलैण्ड आदि मे फैल गयी और वहां पर भी इसके ऐसे ही कल्याणकारी परिणाम सामने आए | बुद्ध के परिनिर्वाण के लगभग पांच सौ वर्ष बाद विपश्यना की कल्याणकारी विधि भारत से लुप्त हो गई | दूसरे देशो मे भी इस विधि की शुद्धता नष्ट हो गई | केवल बर्मा मे इस विधि के प्रति समर्पित आचार्यों की एक कड़ी के कारण यह अपने शुद्ध रूप में कायम रह पाई | पिछले दो हज़ार वर्षों मे वहां के निष्ठावान आचार्यों की परम्परा ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस ध्यान-विधि को अपने अक्षुण्ण रूप मे बनाए रखा | इसी परम्परा के प्रख्यात आचार्य सयाजी ऊ बा खिन ने लोगों को विपश्यना सिखलाने के लिए सन् 1969 मे श्री सत्यनारायण गोयन्का को अधिकृत किया था |
हमारे समय के कल्याणमित्र भी सत्यनारायण गोयन्का के प्रयत्नो से केवल भारत के ही नहीं, बल्कि 80 से भी अधिक अन्य देशों के लोगों को भी फिर से विपश्यना का लाभ मिलने लगा है | सन् 1971 मे अपने प्राण छोड़ने से पूर्व सयाजी अपने स्वप्न को साकार होता देख पाए | उनकी प्रबल इच्छा थी कि विपश्यना अपनी मातृभूमि भारत मे लौटे और लोगों को अपनी अनेकानेक समस्याओं को सुलझाने में सहायता करे | उन्हें विश्वास था कि यह भारत से विश्व भर मे फैल जाएगी और जन-जन का कल्याण करने लगेगी |
श्री गोयन्का जी ने भारत मे जुलाई 1969 से विपश्यना शिविर लगाने आरम्भ किए | दस वर्ष बाद उन्होने विदेशों मे भी इसका प्रशिक्षण देना आरम्भ कर दिया | पिछले 23 वर्षों मे उन्होने 350 से भी अधिक दस-दिवसीय विपश्यना शिविरों का संचालन किया और 120 से अधिक सहायक आचार्यों को इस योग्य बनाया है कि वे विश्व भर में 1,200 से अधिक शिविर ले पाए हैं | इसके अतिरिक्त विपश्यना के अभ्यास के लिए 135 केन्द्र स्थापित हो चुके है जिनमे से 70 भारत में और शेष 65 अन्य देशों मे हैं | विपश्यना का अनमोल रत्न, जो चिरकाल तक बर्मा जैसे छोटे से देश मे सुरक्षित रहा, अब इसका पूरे संसार मे अनेक स्थानों पर लाभ उठाया जा रहा है | आज तो उन लोगों की संख्या निरन्तर बढ़ रही है जिनको स्थायी रूप से सुख-शांति प्रदान करने वाली इस जीवन जीने की कला को सीखने का अवसर मिल रहा है |
पुरातन काल मे भारत को जगद्रुरु कहलाए जाने का सौभाग्य प्राप्त था | हमारे काल मे सत्य की गंगा भारत से एक बार फिर प्यासे जगत की ओर प्रवाहित होने लगी है |
![View of Holy Ganges from Dhamma Kalyana View of Holy Ganges from Dhamma Kalyana](images/holy_ganga.jpg)
View of Holy Ganges from Dhamma Kalyana
अभ्यास
विपश्यना सीखने के लिए यह आवश्यक है कि किसी योग्यता-प्राप्त आचार्य के सान्निध्य मे एक दस-दिवसीय आवासीय शिविर मे भाग लिया जाये | शिविर के दौरान साधको को शिविर-स्थल पर ही रहना होता है और बाहर की दुनिया से सम्पर्क तोड़ना होता है | उन्हें पढ़ाई-लिखाई से विरत रहना होता है और निजी धार्मिक अनुष्ठानो तथा क्रियाकलापो को स्थगित रखना होता है | उन्हे एक ऐसी दिनचर्या में से गुज़रना पड़ता है, जिसमे दिन मे कई बार, कुल मिलाकर लगभग दस घंटे तक बैठे-बैठे ध्यान करना होता है| उन्हें मौन का भी पालन करना होता है, अर्थात अन्य साधकों से बात चीत नही कर सकते | परन्तु अपने आचार्य के साथ साधना-सम्बन्धी प्रश्नो और व्यवस्थापको के साथ भौतिक समस्याओ के बारे मे आवश्यकतानुसार बातचीत कर सकते हैं |
प्रशिक्षण के तीन सोपान होते है | पहला सोपान- साधक उन कार्यो से दूर रहे जिनसे उनकी हानि होती हो | इसके लिए वे पांच शील पालन करने का व्रत लेते है, अर्थात जीव-हिंसा, चोरी, झूठ बोलना, अब्रह्मचर्य तथा नशे-पते के सेवन से विरत रहना | इन शीलों का पालन करने से मन इतना शांत हो जाता है कि आगे का काम करना सरल हो जाता है | दूसरा सोपान-पहले साढ़े तीन दिनों तक अपने सांस पर ध्यान केन्द्रित कर 'आनापान' नाम की साधना का अभ्यास करना होता है | इससे बन्दर जैसे मन को नियन्त्रित करना सरल हो जाता है |
शुद्ध जीवन जीना और मन को नियन्त्रित करना - ये दो सोपान आवश्यक हैं और लाभकारी भी | परन्तु यदि तीसरा न हो तो यह शिक्षा अधूरी रह जाती है | तीसरा सोपान है- अंतर्मन की गहराइयों में दबे हुए विकारो को दूर कर मन को निर्मल बना लेना | यह तीसरा सोपान शिविर मे पिछले साढ़े छ: दिनो तक विपश्यना के अभ्यास के रूप मे होता है | इसके अन्तर्गत साधक अपनी प्रज्ञा जगाकर अपने समूचे कायिक तथा चैतसिक स्कंधों का भेदन कर पाता है | साधकों को दिन मे कई बार साधना - सम्बन्धी निर्देश दिए जाते है और प्रितिदिन की प्रगति श्री गोयन्काजी की वाणी में टेप पर सायंकालीन प्रवचन के रूप मे जतलाई जाती है | पहले नौ दिन पूर्ण मौन का पालन करना होता है | दसवें दिन साधक बोलना शुरू कर देते है जिससे कि वे फिर बहिर्मुखि हो जाते हैं | शिविर ग्यारहवें दिन प्रातःकाल सामाप्त हो जाता है | शिविर का समापन मंगल-मैत्री के साथ किया जाता है, जिसमें शिविर-काल में अर्जित पुण्य का भागीदार सभी प्राणियों को बनाया जाता है |
![Inside of Large Meditation Dhamma Hall Inside of Large Meditation Dhamma Hall](images/inside_meditation.jpg)
Inside of Large Meditation Dhamma Hall
शिविर
विभिन्न देशों में विपश्यना शिविर नियमित रूप से स्थाई केन्द्रों पर अथवा अन्य स्थानो पर लगाए जाते है | सामान्य दस-दिवसीय शिविरों का आयोजन तो होता ही रहता है, परन्तु साधना में आगे बढ़े हुए साधकों के लिए भी समय-समय पर विशिष्ठ शिविर और 20, 30, तथा 45 दिन के दीर्ध शिविर लगाए जाते है | भारत में बच्चो के लिए आनापान के लघु शिविर नियमित रूप से लगाए जाते है, जो विपश्यना की भूमिका का काम देते है | ये शिविर एक से तीन दिन तक चलते है और 8 से 11 तथा 12 से 15 वर्ष तक की आयु वाले बच्चों के लिए होते हैं |
विश्व भर में शिविरों का संचालन स्वैच्छिक दान से होता है| किसी से कोई पैसा नही लिया जाता | शिविरों का पूरा खर्च उन साधकों के दान से चलता है जो पहले किसी शिविर से लाभान्वित होकर दान देकर बाद में आने वाले साधकों को लाभान्वित करना चाहते है | न तो आचार्य और न ही उनके सहायक आचार्य कोई पारिश्रमिक प्राप्त करते हैं | ये तथा शिविरों मे सेवा देने वाले पुराने साधक अपना समय देने के लिए स्वतः आगे आते है | यह परिपाटी उस शुद्ध परम्परा से मेल खाती है जिसमे यह शिक्षा बिना किसी वाणिज्यिक आधार के, मुक्त-हस्त से और क्रतज्ञता तथा दान की भावना से ओतप्रोत धनराशि के आधार पर बांटनी होती है |
साम्प्रदायिकता-विहीन विधि
चाहे विपश्यना बौद्ध परम्परा में सुरक्षित रही है, फिर भी इसमे कोई साम्प्रदायिक तत्व नही है और किसी भी प्रष्ठभूमि वाला व्यक्ति इसे अपना सकता है और उसका उपयोग कर सकता है| बुद्ध ने स्वम "धर्म" सिखाया जिसका तात्पर्य है- मार्ग अथवा सच्चाई | उन्होने अपने अनुयायियों को 'बौद्ध' नही कहा | वे उन्हे धार्मिक (अर्थात, सच्चाई पर चलने वाले) कहा करते थे| इस साधना-विधि का आधार यह है कि सभी मनुष्यों की समस्याएं एक जैसी है और इन समस्याओं को दूर करने मे सक्षम यह एक ऐसा उपाय है, जिसे हर कोई काम में ले सकता है|
विपश्यना के शिविर ऐसे व्यक्ति के लिए खुले है, जो ईमानदारी के साथ इस विधि को सीखना चाहे | इसमें कुल, जाति धर्म अथवा राष्ट्रीयता आड़े नही आती | हिन्दू, जैन, मुस्लिम, सिक्ख, बौद्ध, ईसाई, यहूदी तथा अन्य सम्प्रदाय वालों ने बड़ी सफलतापूर्वक विपश्यना का अभ्यास किया है | चूंकि रोग सार्वजनीन है, अतः इसका इलाज भी सार्वजनीन ही होना चाहिए | उदाहरणतया जब हम क्रुद्ध होते है तब वह क्रोध - 'हिंदू क्रोध' अथवा 'ईसाई क्रोध' अथवा 'चीनी क्रोध अथवा 'अमरीकन क्रोध' नही होता | इसी प्रकार प्रेम तथा करूणा भी किसी समुदाय अथवा पंथविषेश की बपौती नही है | मन की शुद्धता से प्रस्फुटित होने वाले ये सार्वजनीय मानवीय गुण है| सभी प्रष्ठभूमियों के विपश्यी साधक जल्दी ही यह अनुभव करने लगते हैं कि उनके व्यक्तित्व में निखार आ रहा है |
आज का परिवेश
परिवहन, संचार, कृषि तथा चिकित्सा आदि के क्षेत्रों में विज्ञान तथा तकनीक ने जो प्रगति की है उससे भौतिक स्तर पर मानव-जीवन में भारी परिवर्तन आया है | परन्तु यह प्रगति एक छलावा है | वस्तुस्थिति तो यह है कि विकसित तथा सम्रद्ध देशों में भी भीतर-ही-भीतर आज के नर-नारी विकट मानसिक एव भावनात्मक तनावों में से गुजर रहे हैं |
जातीयता, व्यक्तिवाद, भाई-भतीजाबाद और जात-पात को अत्यधिक महत्व देने से पैदा हुई समस्याओ तथा अन्य वाद-विवादो से इस देश के नागरिक प्रभावित हुए हैं | गरीबी, लड़ाई, नर-संहार के आयुध, रोग, नशीली दवाओं के शिकंजे, आतंकवाद की भयानकता, महामारी के रूप में बढ़ता हुआ पर्यावरण-प्रदूषण और नैतिक मूल्यों का गिरता हुआ स्तर-ये सभी सभ्यता के भविष्य पर कालिख पोत रहे है | हमारे उपग्रह के निवासी कैसी मर्मान्तक पीड़ाओ और गंभीर निराशा के दौर में से गुज़र रहे है, इसे जानने के लिए किसी भी दैनिक समाचार पत्र के मुख प्रष्ट पर नज़र दौड़ाना ही पर्याप्त है |
ऊपर-ऊपर से लगता है कि इन समस्याओं का समाधान नही है | पर क्या सचमुच ऐसा है ? इसका साफ-साफ उत्तर है-नही ! आज सारे विश्व में परिवर्तन की हवा का चलना साफ ज़ाहिर है | सब जगह लोग इस बात के लिए आतुर है कि कोई ऐसा उपाय हाथ लगे जिससे शांति और सामंजस्य वापस आएं, मनुष्य के सादगुणो की सार्थकता में फिर से विश्वास जमे, और सामाजिक, साम्प्रदायिक तथा आर्थिक सभी प्रकार के उत्पीड़नो से मुक्ति मिले और सुरक्षा का वातावरण पैदा हो | विपश्यना एक ऐसा उपाय हो सकता है |
विपश्यना तथा सामाजिक परिवर्तन
विपश्यना की ध्यान विधि एक ऐसा रास्ता है जो सभी दुःखो से छुटकारा दिलाता है | इससे राग, द्वेष और मोह दूर होते है और यही हमारे दुःखो का कारण है | जो कोई इनका अभ्यास करते रहते हैं, वे थोड़ा-थोड़ा करके अपने दुःखो का कारण दूर करते रहते है, और बड़ी द्रढता के साथ अपने मानसिक तनावों की जकड़न से बाहर निकल कर सुखी, स्वस्थ और सार्थक जीवन जीने लगते हैं | इस तथ्य की पुष्टि अनेक उदाहरणों से होती है |
भारत में जेलों में भी प्रयोग किए गये हैं | सन् 1975 में श्री गोयन्का जी ने केन्द्रीय कारागार, जयपुर में 120 बंदियों का ऐतिहासिक शिविर लिया | भारत की दंड-व्यवस्था के इतिहास में ऐसा प्रयोग पहली बार हुआ | इसके बाद सन् 1976 में राजस्थान पुलिस अकादमी, जयपुर में पुलिस विभाग के अधिकारियों के लिए शिविर का आयोजन किया गया | सन् 1977 में केन्द्रीय कारागार, जयपुर में दूसरा शिविर लगा | इन शिविरों को आधार बना कर राजस्थान विश्व-विद्यालय ने कई प्रकार के समाजशास्त्रीय अध्ययन किए | सन् 1990 में केन्द्रीय कारागार, जयपुर में एक अन्य शिविर लगा जिसमें उम्र-क़ैद भुगत रहे 40 बंदियों और 10 जेल अधिकारियों ने भाग लिया | इसमें भी बहुत अच्छे परिणाम सामने आए | सन् 1991 में साबरमती केन्द्रीय कारागार, अहमदाबाद में भी उम्र-कैदियों के लिए शिविर लगाया गया और इसे गुजरात विद्यापीठ के शिक्षा विभाग ने अनुसंधान का विषय बनाया | ऐसे ही 1992 में बड़ोदा के केन्द्रीय कारागार में शिविर लगा जिसके परिणाम को देख कर शीघ्र ही दूसरा शिविर लगाने की माँग हुई | राजस्थान तथा गुजरात में किए गए अध्ययनों से पता चला है कि शिविरार्थियों के द्रष्टिकोण तथा व्यवहार में गुणात्मक परिवर्तन आया है | इससे यह संकेत मिलता है कि विपश्यना सकारात्क सुधार लाने का एक ऐसा उपाय है जिससे अपराधी भी समाज के अच्छे सदस्य बन सकते है | श्री गोयन्का जी को विपश्यना सिखलाने वाले आचार्य सयाजी ऊ बा खिन का स्वयं का सरकारी सेवाकाल इस बात का प्रमाण है कि सरकारी तन्त्र पर इस ध्यान-विधि से कैसे सुधार आने लगता है | सयाजी अनेक सरकारी विभागों के अध्यक्ष थे | अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को विपश्यना साधना सिखला कर वे उनमें कर्तव्य-निष्ठा, अनुशासन तथा नैतिकता का और अधिक विकास करने में सफल हुए | इसके परिणामस्वरूप कार्यक्षमता में आभूतपूर्व व्रद्धि हुई और भ्रष्टाचार समाप्त हुआ | इसी प्रकार राजस्थान सरकार के ग्रह विभाग में महत्वपूर्ण पदों पर काम करने वाले कुछ अधिकारियों के विपश्यना शिविरों में भाग लेने से निर्णय लेने और काम निपटाने की गति में तेज़ी आई और कर्मचारियों के आपसी सम्बन्ध भी सुधरे |
विपश्यना विशोधन विन्यास ने स्वास्थ्य, शिक्षा, मादक पदार्थों का सेवन तथा संस्थानों की प्रबन्ध-व्यवस्था जैसे क्षेत्रों में विपश्यना के गुणात्मक प्रभाव के बारे में अन्य उदाहरणों का भी संकलन किया है |
ये प्रयोग इस बात को उजागर करते है कि समाज में परिवर्तन लाने के लिए पहले व्यक्ति को पकड़ना चाहिए, याने प्रत्येक व्यक्ति को सुधरना चाहिए | केवल उपदेशों से सामाजिक परिवर्तन नही लाया जा सकता | छात्रों में भी अनुशासन तथा सदाचार केवल किताबी व्याख्यानों से नहीं ढाला जा सकता | केवल दंड के भय से अपराधी अच्छे नागरिक नहीं बन सकते और न ही दण्डात्मक मानदंड अपना कर साम्प्रदायिक फूट को दूर किया जा सकता है | ऐसे प्रयतनों की विफलता से इतिहास भरा पड़ा है |
'व्यक्ति' ही कुंजी है | उसके साथ वात्सल्य एवं करुणा का बर्ताव किया जाना चाहिए | उसे अपने आपको सुधारने के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए | शील सदाचार के नियमों का पालन करवाने के लिए उसे उपदेश नही, बल्कि उसके भीतर अपने आप में परिवर्तन लाने की सच्ची ललक जगानी चाहिए | उसे सिखलाना चाहिए कि अपनी खोज-बीन कैसे की जाती है, ताकि एक ऐसी प्रक्रिया हाथ लग जाए, जिससे परिवर्तन का क्रम शुरू होकर चित्त निर्मल हो सके | इस प्रकार लाया हुआ परिवर्तन ही चिरस्थायी हो सकता है |
विपश्यना में लोगों के मानस और चरित्र को बदलने की क्षमता है |